संधि: रिवीजन सभ के बीचा में अंतर

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===प्रकतिभाव===
कुछ दशा में अक्षर सभ के जोड़ होखे के बावजूद कौनों बदलाव ना होखे ला। अइसन जोड़ सभ के प्रकृतिभाव<ref name="Shastri">{{cite book|author=Swami Dharanand Shastri|title=Laghusiddhantakaumudi--Vardaraj Virchit|url=https://books.google.com/books?id=HdmfQ5D_yy8C&pg=PT74|publisher=Motilal Banarsidass Publishe|isbn=978-81-208-2214-6|pages=74–}}</ref> कहल गइल बा आ कई पाणिनीय सूत्र सभ द्वारा एह दशा सभ के बतावल गइल बाटे। लघुसिद्धांतकौमुदी नियर आसान ग्रंथ सभ में एकरा के अच्सन्धि में रख दिहल गइल बा हालाँकि, सिद्धांतकौमुदी में एकरा खाती अलग प्रकरण बा आ ई पञ्चसन्धि सभ में गिनल जाला।
 
प्रकृतिभाव संधि के मुख्य उदाहरण बाटे:
'''प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम्''' (6। 1। 125), मने कि प्लुत आ प्रगृह्य सभ के बाद स्वर आवे पर हमेशा प्रकृति भाव (जइसे के तइसन) रह जाला। उदाहरण हवे "हरी एतौ"। "प्रगृह्य" एगो संज्ञा (नाँव) हवे जेकर परिभाषा '''ईदूदेद्द्विवचनं प्रगृह्यम्''' (1। 1। 11) सूत्र से आवे ले कि ई ऊ ए से समाप्त होखे वाला द्विवचन वाला रूप सभ के प्रगृह्य कहल जाला। अइसहीं अउरी कई किसिम के प्रगृह्य परिभाषित कइल गइल बाड़ें।
 
'''इकोऽसवर्णे शाकल्यस्य ह्रस्वश्च''' (6। 1। 127) पद के अंत में इक होखे आ ओकरे बाद सवर्ण आवे तब प्रकृतिभाव विकल्प से होला; शाकल्य मुनि के मत अनुसार इहाँ लघु रूप (ह्रस्व) भी हो सके ला। एह तरीका से "चक्रि अत्र" आ "चक्र्यत्र" दुनों रूप बने लें।
 
एही तरह से, '''ऋत्यकः''' (6। 1। 128) से "ब्रह्मर्षि" रूप सिद्ध होला। '''दूराद्धूते च''' (8। 2। 84) मने कि दूर से बोलावे के समय प्लुत होखे के दशा में संधि ना प्रकृति भावहोला। '''मय उञो वो वा''' (8। 3। 33) सूत्र से "किमु उक्तम्" (प्रकृतिभाव) चाहे "किम्वुक्तम्" (विकल्प से संधि) रूप सिद्ध होलें।
 
===हल् संधि===
"https://bh.wikipedia.org/wiki/संधि" से लिहल गइल