जैन धर्म के परमेसर चाहे भगवान आउर सभ धरम से तनी भिन्न बाटे। जैन धरम परमेसरत्व के प्रत्येक आत्मा मे देखेला। जेवन आत्मा सांच के जानेला, बरियार होला ओहके जैन धरम परमेसर मानल जाला। जैन धरम सृष्टिकर्ता के सिद्धांत के ना मनेला, माने की ओकर अनुसार एह सृष्टि के केहू रचना नइखे कइले, ई सभ जब से समय चालू भइल तबे से बाटे।

जैन धरम मे मानल जाला जे, मानुस के आत्मा होकर करम के फल ना सहेला, आ उहे परमेसर होला चाहे ओह मे परमेसर के गुन होला।

रत्नकरण्ड श्रावकाचार (एगो जैन ग्रंथ) के मे लिखल बा[1]:

आप्तेनो च्छिनदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना।
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत्।।५।

माने:

एह जग मे असल परमेसर उहे हऽ जेमे कोनो दोस नइखे आ ऊ सभ से बेसी ग्यान होखे, अउरी केहू परमेसर ना कहा सके।

क्षुत्पिपासाजराजरातक्ड जन्मान्तकभयस्मयाः।
न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ।।६।।

माने:

ऊ जेकरा भुख, पिआस, बुढ़ापा, रोग, जनम, मरन, हड़क (डर), आन, लागि (लगाव), घिन, छोह (नेह), चिंता, गुमान, नफरत, बेचैनी, पसेना, नीनि, अकबकउनी ना लागे/धरे/बरे/होखे, उहे परमेसर हटे।

  1. Jain, Champat Rai (1917), The Ratna Karanda Sravakachara, The Central Jaina Publishing House, p. 3, archived from the original on 2015