सन्यास भारतीय संस्कृति, खासतौर से हिंदू संस्कृति, में जिनगी जिए के आदर्श ब्यवस्था के रूप में बतावल गइल चार गो आश्रम सभ में से अंतिम हवे; पहिला तीन गो आश्रम, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आ वानप्रस्थ बाड़ें। एह ब्यवस्था में औरत-मर्द के जिनगी के अंतिम समय, यानी अगर औसत उमिर के सौ बरिस मानल जाय तब पचहत्तर के पार के उमिर, सांसारिक मोहमाया से मुक्त हो के बितावे के आदर्श बतावल गइल हवे। अइसन लोग के सन्यासी भा सन्यासिनी कहल जाला। हालाँकि, अगर केहू संसार से बैराग चाहे तब सन्यासी/सन्यासिनी बने खाती कवनो उमिर ना बा आ कबो एह तरह के जिनगी अपना सके ला।

सन्यास लेवे वाला ब्यक्ति के घर-परिवार के चिंता-बंधन छोड़ के, संसार के मोह-माया से मुक्त हो के, ध्यान-ज्ञान आ चिंतन मनन के जिनगी बितावे के होला। कई मायने में ई बौद्ध धर्म के भिक्खु/भिक्खुनी, जैन धर्म के साधु/साध्वी या ईसाई धरम के मोंक/नन नियर जिनगी से समानता वाला बिचार हवे। संसार के चीजन के मोह आ उपभोग के त्याग के अध्यात्मिक जिनगी बितावे के शैली हवे। महात्मा गाँधी के मोताबिक सन्यास के अरथ संसार के पलायन, यानी भागल, ना हवे बलुक ब्यक्ति के जवन ऊर्जा अपना खाती सुख एकट्ठा करे में लागे ले ओकरा के मोड़ के जन-कल्याण आ अच्छाई खाती लगावे के कोसिस सन्यास हवे।[1]

  1. बी. के. लाल (2009). समकालीन भारतीय दर्शन. मोतीलाल बनारसीदास. pp. 183–. ISBN 978-81-208-2232-0.